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छलना / प्रभाकर माचवे

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हेमन्ती सन्ध्या है, सूरज जल्दी ही डूबा जाता है —
मन भी आज अकारज चिर-प्रवास से क्यों ऊबा जाता है ?
 
फ़सल कट गई, कहीं गड़रिया बचे-खुचे पशु हाँक रहा है,
सान्ध्य-क्षितिज पर कोई अंजन, म्लान-गूढ़ छवि आँक रहा है ।

बचे-खुचे पंछी भी लौटे, घर का मोह अजब बलमय है,
मानव से प्रकृति की छलना, प्रकृति से मानव छलमय है !