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द्वंद में रोया हुआ पंछी / अंकित काव्यांश
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डालियों के
द्वंद में रोया हुआ पंछी,
कोपलों के आगमन पर क्रुद्ध होता है।
एक दिन था जब
यही जंगल उसे अच्छा लगा था,
एक दिन था जब यहाँ हर पल उसे अच्छा लगा था।
एक दिन था जब
उड़ानों का यही आधार था बस,
तब हमेशा पंख पर बादल उसे अच्छा लगा था।
बरगदों की
छाँह को ढोया हुआ पंछी,
बादलों के स्याह तन पर क्रुद्ध होता है।
राम जाने
किस दिशा से आ गयीं कैसी हवाएँ?
स्वर्ण मृग की ओर झुकती ही गयीं सारी लताएँ।
थक गया है
कंठ में प्रतिरोध भर-भरकर यहाँ वह,
बहुत संभव है कि अब वह तोड़ दे सारी प्रथाएँ।
चीखने में
स्वर सभी खोया हुआ पंछी,
कोयलों के हर वचन पर क्रुद्ध होता है।