वे कौन-सी ज़ुबानें हैं
जो मैं बोलूँ
कि समझें सबके मन
कौन-सी गठानें अपनी
जो मैं खोलूँ
कि खुले सबके मन
कौन-सी कौन-सी वह काया
जिसे धारूँ
कि भेंटें सब मन-तन
कि बिना पार किए ये सब बाधाएँ
मैं गूँगा हूँ वाक् का
छूँछा हूँ गाँठ का
अछूत समाज का
शब्दों के मन के रहन के इन रोगों से बेज़ार
छटपटाता हूँ इसीलिए कविता को
कविता कहने लजाता हूँ !