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तुम्हारे बिना टूटकर / अंकित काव्यांश
Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 07:44, 3 अगस्त 2020 का अवतरण
जी रहा हूँ तुम्हारे बिना टूटकर,
क्या मिला है तुम्हें इस तरह रूठकर।
जब अहं के शिखर से उतरना न था,
सिंधु की कामना क्यों जगाती रहीं।
था मिटाना तुम्हे एक दिन फिर कहो,
प्यार की अल्पना क्यों सजाती रहीं?
नेह के पनघटों पर प्रफुल्लित दिखी
आज गागर वही रो रही फूटकर।
मैं मिलन की हठी प्यास के साथ में,
कर रहा था तुम्हारी प्रतीक्षा वहाँ।
एक सम्भावना भाग्य से थी लड़ी,
थी तुम्हारी समर्पण परीक्षा वहाँ।
छोड़कर घर नही आ सकीं तुम मगर
जा चुकी थी सभी गाड़ियाँ छूटकर।
रेत का तन भिगोए लहर लाख पर,
सूखना ही उसे अंततः धूप में।
जो हुआ सो हुआ अब किसे क्या कहूँ,
खुश रहो तुम हमेशा किसी रूप में।
मान लूँगा समय का लुटेरा कहीं
जा चुका है मुझे पूर्णतः लूटकर।