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मेरा ख़ौफ़ / शहनाज़ इमरानी

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एक ही सिम्त में चलते दिन रात
उदासी एक गहरी नदी
जिसमे चेहरा भी उचाट नज़र आता
सुबह से शाम और शाम से रात तक
नपे-तुले क़दमों की हरकत
बदलती दुनिया की हर चीज़ के बदलते मायने
शाम ढलते हुए काली रात में बदली
चाँद के लम्बे हाथ
दरख़्तों के सर्द कन्धों को छूते हुए
बादलों के समन्दर में डूबे

असमंजस की सीढ़ियों पर बैठे हुए
सन्नाटे की आवाज़ें नींद और जागने के बीच
नब्ज़ टटोलने पर सांसे किसी आशंका में उखड़ती
आती हुई बमुश्किल चन्द सांसें
जिनमे उलझी एक पूरी दुनिया
उम्मीदों की खुली खिड़कियों से
खुलता आसमान मगर कुछ वक़्त के लिए
एक धूसर दुख चुप्पी ओढ़ लेता
एक अजीब ख़ौफ़ सर उठाता
बावजूद इसके के मौत एक सामान्य सी बात है अब ।