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दुःख ही जीवन की कथा नहीं / अशोक शाह

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जिसे चाहते पाना हरदम
क्या सच में मिलता सुख उसी से
कितना अपना है, मन से
देने जग को आये हम

मोह से ही पैदा होता दुःख
सुख से बड़ा नहीं हो सकता
लक्ष्य कितना ही हो कठिन
निश्‍चय से बड़ा नहीं हो सकता

जीवन-वृक्ष पर पनपी मृत्यु
पलती, बढ़ती रस उसका लेकर
अरे जीवन की यह संगिनी
अस्तित्व अलग नहीं रख सकती

मंजिल नहीं हम मृत्यु के
रोज़ डरा करें थर-थरकर
जीवन अनन्त के सखा-सहचर हम
बहा करें कल-कलकर

आलोकित है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
कण-कण सिंचित है अमल प्यार से
घृणा तो है तिमिर पल का
क्यों बस जाये इस जीवन में

साध्य नहीं हो सकते कभी
इस जग के अवसाद-विशाद
पुष्पित करने जीवन वृक्ष को
खाद समझ और डाल सम्भाल

क्रोध निराशा तृष्णा अहंकार
से परे और हैं अनन्य विस्तार
इस क्रम की अंतिम कड़ी मनुष्य हो
कितना हास्यास्पद यह विचार

स्थूल नहीं हो सकता स्थायी
विघटित निर्मित से होता है
सहचर हम अन्नत यात्रा के
मृत्यु के मोड़ पर कहाँ रुकना है


सृजन के अनुपम समुच्चय का
विनाश एक निश्चित परिणति है
वृत्तीय पथ पर चलते रहना है
मंज़िल एक यही सबकी है

दुःख ही जीवन की कथा नहीं
जीना कोई व्यथा नहीं
जीवन से निर्मित पूरी दुनिया
मेरी दुनिया, तेरी दुनिया