भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारे साये-सा अजोर / अशोक शाह

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:20, 7 अगस्त 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लूटकर चाँद को पिछली रात
कौन भागा था
छिटकके चाँदनी के टुकड़े
पूरे पस-ए-मंजर पर बिछ गये थे

चाँदनी के दामन पर पडे़
उज्ज्वलतर
धवल पाँवों के निषान
तुम्हारे ही थे न जानम

फ़लक पर चाँद कितना अब
बेरौनक दिखता है
तुम्हारे साये-सा भी अजोर
उसमें नहीं है

तुम लौट आतीं तो
मिट जाता निषीथ तम सदियों का
वगरना सिर्फ़ मरने का नाम
ज़िन्दगी तो नहीं