किसलय नये निकलने दो / अशोक शाह
मैं मुट्ठियाँ खोलता हूँ
दामन तुम फैलाओ
सरके थोड़ा समीर
नम धरा हो जाने दो
अखुँवाने दो बीज ज़मीं में
नन्ही जड़ें जाएँपसर
रेंग-रेंग पानी मिट्टी का
पोर-पोर भिगोने दो
खोलो झरोखे गाएँ पंछी
सावन अभी बरसने दो
चटकें कलियाँ शाखों की
फूलों को अब खिलने दो
अपनी सीमाएँ तोड़ता हूँ
विचारों को तुम बुहारो
कालिख लगा अँधेरा छँट जाए
मन की दीवारें ढहने दो
कहाँ कहाँ से घूम-घामकर
इस घर में लौटे हैंहम
निष्कर्षों-सा टंगे चित्रों को
समय रहते उतरने दो
झडे़ पत्ते तुम उठा लो
बाहर मैं फेंक आता हूँ
तन-मन की गाँठे खोलो
किसलय नये निकलने दो
भीतर थोड़ी जगह बनाओ
मैं आसमान फैलाता हूँ
सूरज हँसतीराह हो जाए
सृष्टि कण-कणमहकने दो
दिल में हिलोरे उठने दो
ज़िन्दगी थोड़ी बदलने दो
भ्रम दिशाओ केमिटने दो
निसर्ग की नेमत बरसने दो