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मन जीवन / भावना सक्सैना

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देह और मन का संघर्ष है बरसों से
कि दोनों ही अकसर साथ नहीं होते
देह जीती है अपने वर और श्राप
कभी समतल धरती पर तो कभी
उबड़-खाबड़ घने गहरे जंगल में
और मन बुनता है घोंसला आकाश में
वो जीता है अकसर कल में
सपनों में, पुरानी डायरियों के पन्नों में
और कभी बैठ जाता है
दहकते ज्वालामुखी के मुहाने पर
फूंकता है उसमें शीतलता
कभी शांत हो जाती है ज्वाला
तो कभी राख हो जाता है मन।
जहाँ देह होती है
अकसर मन नहीं होता
यह जानते हुए कि
कहीं होकर भी न होना
समय को खो देना है
मन बैठा रहता है
ऊँचे वृक्ष की फुंगी पर
वृक्ष के फलों से सरोकार नहीं
वह देखता है दूर तलक
सपने सुनहरे नए कल के।
देह जब अर्जित कर रही होती है
अपने अनुभव और ज़ख्म सुख के
मन गुनगुनाता है
गीत किसी और क्षण के
किंतु श्रापित है मन
युगो-युगों से फिर-फिर
वही दोहराता आया है
उम्र भर देह से रहकर जुदा
देह के बाद न रह पाया है
लाता है नियति एक ही
चलती नहीं किसी की जिसपर
मन जो रहता नहीं देह का होकर
खत्म हो जाता है देह संग जलकर।
फिर भी मन असीम अनंत
नन्हीं चिड़िया-सा संभालो इसे
कि जब टूटता है मन
देह में प्राण रहें न रहें
रह जाता नहीं उसमें जीवन।