भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जड़े / भावना सक्सैना

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:31, 8 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भावना सक्सैना |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आदमी की
जड़ें उग आती हैं घरों में...
उसे नहीं चाहिए
जानकारी देश दुनिया की
उसकी बादशाहत से बाहर
ताज़-ओ-तख़्त
सभी बेमानी हैं!
वह हरदम सोचता है
दीवारों पर चढ़ रही सीलन की
कभी छत से उतरती
तो कभी ज़मीन से चढ़ती।
और छत पर धरी
पानी की टंकी के नीचे
उग आए पीपल की।
उस पीपल को वह
उखाड़ फेंकना चाहता है
नहीं चाहता पीपल
जो अपनी जड़ें फैला
उस घर पर बना ले
एक मज़बूत पकड़
उस पर रखना चाहता है
वह कायम
अपना साम्राज्य
अपना आधिपत्य।
उसे ख़ौफ़ नहीं है
समय का
जो रौंद देता है सब
उसने देखे हैं
समय की गर्त में
तिरोहित भग्नावशेष
फिर भी
आदमी स्वयं को
समझता है शाश्वत
कभी पीपल सा
तो कभी बरगद सा
महसूसता है ख़ुद को।
और जानबूझकर
भूला रहता है कि
जड़े, शाखें और पुष्प
सभी रह जाएंगे
और
सबके रहते भी वह
उखड़ जाएगा एक रोज़।