तांगे के घोड़े / दीपक जायसवाल
तांगे के घोड़े हँसते नहीं
सिर झुकाए
दर्द और ग़ुलामी में दौड़ते हैं।
घोड़े की नाल में
जब लोहा ठोका जाता है
और उनके नाक को छेदकर
गुलाम बनाया जाता है
वे ज़ोर से हिनहिनाते हैं
उनकी चिंघाड़
बहुत भयानक होती है
अफ़्रीका में और मार-तमाम
जगहों पर बहुत से लोग हैं
जो लोहे का स्वाद याद कर
सिहर उठते हैं।
जब हम तांगे पर बैठे होते हैं
और तेज चलाने की शिकायत करते हैं
तो हर मिनट उसकी चमड़ी
चाबुक सहती है
बहुत से मज़दूरों की अनऊँघी आँखों में
डूबता सूरज उतर आता है
मशीन उन्हें निगल जाती हैं।
घोड़ों की आँखें बेहद उदास होती हैं
वे रोते नहीं
उनकी टाँगों से रिसता है खून
सड़क पर पड़े खून
बाद में आने वाले ताँगावान को
राह दिखाती हैं
कोई घोड़ा मर कर तारा नहीं बनता
ताँगेवाले बनते हैं मरने का बाद ध्रुवतारा