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भीतर के ग्रन्थ / सुरेश बरनवाल

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भीतर एक ग्रन्थ है
मेरे भी
तुम्हारे भी।
ग्रन्थ को छूने मात्र से
इसके कुछ पृष्ठ
अनायास पलट जाते हैं
कुछ पढ़े जाते हैं
कुछ अनछुए रह जाते हैं।
कुछ पृष्ठ
हम दोनों के ग्रन्थ में एक से हैं
संवेदनाओं से भीगे
स्नेह से सिंचित
प्रेम से सराबोर।
स्पर्श किए जाने की आस में
यह पृष्ठ खुद फड़फड़ाते हैं।

चलो! इन पृष्ठों को पढ़ते हैं
तुम मेरे ग्रन्थ को पढ़ो
मैं तुम्हारे।