भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़िन्दगी है कि है कोई सपना / रमेश तन्हा

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:02, 13 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमेश तन्हा |अनुवादक= |संग्रह=तीसर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
ज़िन्दगी है कि है कोई सपना
इस जहां में कोई तो हो अपना।

वो भी क्या दिन थे बस दो काम
रोज़ कहना नई ग़ज़ल, छपना।

दिल लड़कपन के कितने अच्छे थे
खेलते रहना, कूदना, टपना।

मां का तड़के, सवेरे, जाग उठना
और वो राम नाम का जपना।

फिर वो ढोरों के घेर में जा कर
अपने हाथों से उपलों का थपना।

सुब्ह शीतल हवाओं का चलना
और फिर दोपहर का वो तपना।

हो न सकना कलास में हम से
वो खेत-मुस्तक़ीम का नपना।

वो जो दो घर दिखाई देते हैं
एक उनका है और इक अपना।

ये चमत्कार और इस युग में
तुम ने देखा है क्या कोई सपना।

हैं हैं जांबाज़ हम को आता है
मौत के मुंह दे ज़िन्दगी धपना।

अब तो मुझ पर यक़ीन कर लीजे
मैं जो कहता हूँ कोई गप शप ना।

इतने भोले भी क्यों बनो 'तन्हा'
कौन दुनिया में हो सका अपना।