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चालीस की उम्र में / हरिमोहन सारस्वत
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लगता है इन दिनों
एक पुराना पत्ता हो गया हूं
आंगन के मोगरे का
भोर की ओस
अब नहीं झांकती
मेरे फैले हुए अन्तर्मन में
वह तो थिरकती रहती है
अपनी अठखेलियों में
नये चमकते पत्तों की देह पर
अंगराग करते हुए
मुझे चिढाते हुए
हां
सर्द मौसम में उतरता पाला
अवश्य ही आतुर रहता है
गलबहियां डालने को
पीला पड़ने लगा हूं मैं
उसकी सर्द मार से
देह तो कदाचित सह लेगी
मौसम के कुछ और प्रहार
मन में उतरी
जेठ की दुपहरी का क्या करूं?
बस सिक रहा हूं
पलटी गई रोटी की तरह
जिसे उतार लिया जाना है
फूलते ही