गीदड़ के दाँत / उपासना झा
आठ महीने की गर्भवती वह स्त्री
रुग्ण काया और शिथिल कदमों से कछुए की तरह
पैरों को घसीटती हुई दवा कि दुकान गयी थी
इस देश की असंख्य स्त्रियों की तरह न वह पति को प्यारी थी
न ससुराल को
मायका भी कन्यादान को तिलांजलि मान संतुष्ट बैठा था
उसकी खोज-ख़बर कोई नहीं लेता था तो वह कितने दिनों की भूखी थी या रक्त कितना कम था यह कौन पूछता
थककर खरगोश की तरह लौटती बेर एक पेड़ के नीचे सो गई
कार्तिक की ठंडी भोर में मिला उसका शव
परदेसी पति लौट आया शरीर पर बने घावों का दाम लेने
गाँव के चुनाव का खेल ही उलट गया
अगड़े-पिछड़े, झूठ-सच, दुष्कर्म-अकाल मृत्यु, पुलिस-अस्पताल, अग्नि-आकाश, राजनीति-जाति, खुदबुद-खुदबुद
सरकारी अस्पताल में चुपचाप बैठा वह जूनियर डॉक्टर हतप्रभ होकर सोचता है आदमी और गीदड़ के दांतों का अंतर