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ग्यारह बरस की माँ / उपासना झा

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उसे नहीं भाती देर रात
शिशु की रुलाई
उठते डर लगता है उसे कम रौशनी में
अचानक उसकी टूटती है नींद
माघ की ठंड में उसकी गात है
पसीने से धुली हुई

एक क्षण को कभी
मन में उठता है दुलार
उमगती है नसों में एक पवित्र अनुभूति
अवयस्क उसकी छातियों में
उतरता है दूध
लेकिन ये क्षण भीषण अंधकार को
पाट नहीं पाते

उसके सपनों में परियाँ नहीं आती
उसकी किताबें हैं
बोरी में बन्द, दुछत्ती पर धरी हुई
छोटे भाई की किताबों को
देखती है छूकर
सोचती है कि स्कूल जाना
उसे इतना तो नापसन्द न था

नहीं आती उसकी सहेलियाँ अब घर
गुड्डे-गुड़ियों की बारात में
उसकी अब कोई ज़रूरत नहीं
न छुप्पमछुपाई में अब उसकी डाक होती है
उसे कर दिया गया है निर्वासित
जीवन के सभी सुखों से

दादी अब नहीं देती उसे मीठी गालियाँ
पिता कि आँखों में सूनेपन के सिवा कुछ नहीं
चाचा के गुस्से की जगह
आ बैठा है डबडबाया हुआ पछतावा
क्यों नहीं रखा उन्होंने उसका ध्यान
माँ को बोलते अब कोई सुनता

उसे नहीं धोने इस शिशु के पोतड़े
उसे खेतों में फूली मटर
और सरसों के पीले फूल बुलाते हैं
लेकिन यह अब किसी और ही
युग की बात लगती हो जैसे
उसे डर लगता है शंकित आँखो
और हर तरफ़ फुसफुसाहटों से

इस घर में शिशु-जन्म
ऐसा शोक है, जिसमें यह घर है संतप्त
यह शिशु है अवांछनीय, अस्वीकृत
हर दिन यह परिवार कुछ और ढहता है
देश का अंधा कानून आत्ममुग्ध है
अपने अँधेरे कमरे की फ़र्श पर बैठी
यह ग्यारह बरस की माँ
किसी से कुछ पूछ भी नहीं पाती...