भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आख़िर कब तक ? / विजयशंकर चतुर्वेदी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:42, 19 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विजयशंकर चतुर्वेदी |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गाँठ से छूट रहा है समय
हम भी छूट रहे हैं सफ़र में
छूटी मेले जाती बैलगाड़ी
दौड़ते-दौड़ते चप्पल भी छूट गई
गिट्टियों भरी सड़क पर
हल में जुते बैल छूट गए
छूट गया एक-एक पुष्ट दाना ।

देस छूट गया
रास्ते में छूट गए दोस्त
कुछ ज़रूरी किताबें छूट गईं
पेड़ तो छूटे अनगिनत
मूछों वाले योद्धा भी छूट गए
जिसे लेकर चले थे, छूट गया वह वज्र भी ।

छूट गया ईमान
पँख छूट गए देह से
हड्डियों से खाल छूट गई
आख़िर कब तक नहीं छूटेगी सहनशक्ति ?