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सर्द दिनों में / विजयशंकर चतुर्वेदी

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सर्द दिनों में होता है अक्सर यह
हम जकड़कर रखते हैं एक-दूसरे को
महसूस करने लगते हैं एक-दूसरे की गर्मी ।

सर्द दिनों में बहती हैं सर्द हवाएँ
कहता है लकड़हारा कि लहक उठती है उसकी देह
दहकने लगती है कोई भट्टी उसके भीतर
उसे बटोरना होता है अधिक जलावन ।

सर्द दिनों में चीज़ें हो जाती हैं बेहद कठोर
सोख लेती हैं देह की गर्मी छूने भर से
बड़ा कठिन हो जाता है मूठ थामना तलवार की
तमाम उज्जवल नक्षत्र पड़ने लगते हैं धूमिल
पलायन करने लगता है ब्रह्माण्ड अनजान दिशा की ओर ।

ऐसे में मैं लिपट-लिपट करता हूँ मिन्नतें
ओ फ़सलो ! पृथ्वी के लिए तो रुको तुम
चन्द्रमा ! बच्चों के लिए ठहरो
आकाश ! चिड़ियों के लिए रहो
चिड़ियो ! ठहर जाओ मेरी उड़ानों के लिए

सपनो ! आँखों में बसो
आँखो ! प्रकृति में समा जाओ
ओ प्रकृति ! तुम मुझमें वास करो
ताकि मैं रम सकूँ लोगों में
ओ लोगो ! ठहर जाओ बस्तियों में प्रेम के लिए
सर्द दिनों में बहती ही हैं सर्द हवाएँ ।