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पृथ्वी के लिए तो रुको / विजयशंकर चतुर्वेदी

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मैं और पृथ्वी घण्टों बातें करते हैं
समन्दर किनारे रेत पर बैठकर
कभी वह गुमसुम हो जाती है
तो कभी आंसू भर आते हैं उसकी आँखों में
मेरी पृथ्वी खारे पानी की मछली है ।

करोड़ों दिन-रात लगाकर बनाए गए उसके पहाड़
चट कर जाते हैं हम चन्द ही दिनों में
उसकी दी हुई नदियों को
परनाले में तब्दील कर देते हैं देखते-देखते ।

पुराण कथाओं में कभी उसने धरा होगा गाय का रूप
गई होगी भगवान विष्णु के द्वार
लेकिन वह हमसे तो नहीं कहती कि समुद्र है उसका वस्त्र
पर्वत स्तनमण्डल हैं उसके
विष्णु की पत्नी है वह
इसलिए उस पर पाँव रखने से पहले उससे क्षमा माँगी जाए !

पृथ्वी यह अहसान भी नहीं जताती

कि उसने ही हमारे दोनों हाथ स्वतन्त्र किए अपने आँचल से
और हमें बन्दर से आदमी बना दिया
वह यह याद भी नहीं दिलाती
कि कैसे उसने हमारा अँगूठा जुदा किया उँगलियों से
और हमें पेड़ों पर चढ़ना सिखा दिया ।

मैं सफ़ाई-सी देता हूँ —
माता, हम नाशुक्री कौमें हैं
हम तो उस आदमी तक का शुक्रिया अदा नहीं करते
जिसने बल्ब बनाया
छापाकल बनाने वाले का हममें से किसको अता-पता मालूम है ?
क्या मायने रखता है इण्टरनेट का आविष्कारक हमारे लिए ?
पशुओं के धन्यवाद की भली चलाई
हम तो बछड़े के हिस्से का दूध पी जाने वाली नस्लें हैं
हम भोगो और भगाओ सभ्यता के बाशिन्दे हैं !

माता, हम डकारते हैं और माहिर हैं पकवानों का कीचड़ बना देने में
हमने दाँतों के बीच फंसा रखा है तुम्हें सैंघी सुपारी की तरह
हम चढ़ जाते हैं चान्द पर छुरी-काँटा लेकर
और कहते हैं कि तुम अण्डे या नाशपाती की तरह भोज्य लगती हो वहाँ से ।

माता, हम वामन से भी बड़े अवतार हैं
हमने दबोच लिया है तुम्हें अपनी हथेलियों में
और चूस कर फेंक दिया है दशहरी आम की तरह
निकालते जा रहे हैं खनिज और तेल तुम्हारी धमनियाँ काट-काटकर
पर्वतचोटियों पर गाड़ चुके हैं पॉलीथीन के झण्डे ।

माता, किसी से नहीं कहती हो तुम
कि पेड़ों पर चला एक भी कुल्हाड़ा काट डालता है मनुष्यता के पाँव
किसी को चेतावनी नहीं देती हो
कि तुमसे बिगाड़ करके नेस्तनाबूद हो गईं तमाम बलशाली प्रजातियाँ
किसी से आग्रह नहीं करती हो
कि तुम्हारे लिए न सही
अपनी पीढ़ियों के लिए तो रुके मानव जाति ।

मैं और पृथ्वी कुछ ऐसी ही बातें करते हैं अक्सर
गंगा किनारे घास पर बैठकर
मेरी पृथ्वी मीठे पानी की मछली है ।