समय और कवि / निमेष निखिल / सुमन पोखरेल
लिख लिख कर
मन का रोने से निकले हुए पंक्तियों को
अव्यवस्थाओँ के प्रसंग और प्रतिकूलताभरी लम्हों को
भयभीत है कवि
कहीँ भाग न जाए पीडाओँ के अभिलेख
अपनी ही कविता से दिन दहाडे।
पंक्तियाँ गुमे हुए कोई बेदाँत कविता
कैसी दीखती होगी –
कल्पना कर रहा है कवि ।
कैसा होता होगा वो भयानक परिदृष्य -
जब निकलकर कविता से वेदनाओँ के पंक्तियोँ का कतार
कवि के विरुद्ध में नारा लगाते हुए चलने लगेगा सडक पर ।
कविओँ का निरीह जमात कैसे चीरलेती होगी
अपने ही काव्यहरफोँ का लगाया हुवा महाभियोग को ?
कौन करता होगा वार्ता में मध्यस्थता
विद्रोही हरफोँ से?
और क्या होता होगा सहमती का विन्दु?
प्रतिरोध के अश्रुग्यास और गोलीयोँ के बारीश को पार करते हुए
अदालत तक कैसे पहुँचता होगा दुःखी हरफों का ताँता
और कैसे दायर करता होगा रिट निवेदन
कवियोँ के विरुद्ध में !
आखिर कब आएगा वो दिन
जब कविता में पीडा को लिखना ना पडे
यही सोच रहा है आजकल एक कवि !