भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
साँझ हो गयी चौरे पर जब दीप नहीं जलता है / सोनरूपा विशाल
Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:24, 21 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सोनरूपा विशाल |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
दादी माँ का जाना अब तुलसी तक को खलता है।
साँझ हो गयी चौरे पर जब दीप नहीं जलता है।
पूरनमासी एकादश सब याद दिलाये रहतीं
हर दिन को जैसे दादी त्यौहार बनाये रहतीं
अब घर का आँगन सुस्ती से आँखों को मलता है।
दोपहरी भर बातों की इक लम्बी रेल चलातीं
अपने दौर की सारी बातें रस लेकर बतलातीं
अब दिन पहले जैसा लज़्ज़तदार कहाँ ढलता है।
मेला, पिक्चर, सजने धजने की शौकीन बहुत थीं
दादी इन्द्रधनुष के रंगों सी रंगीन बहुत थीं
ख़ुश होती हूँ जब इन स्मृतियों का रेला चलता है।