भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बचपन फिर बेताब हो रहा / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:58, 21 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभुदयाल श्रीवास्तव |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
गुड़ की लैया नहीं मिली है,
बहुत दिनों से खाने को।
बचपन फिर बेताब हो रहा,
जैसे वापस आने को।
आम, बिही, जामुन पर चढ़कर,
इतराते बौराते थे।
कच्चे पक्के कैसे भी फल,
तोड़-तोड़ कर खाते थे।
मन फिर करता बैठ तराने
किसी डाल पर गाने को।
मन करता है फिर मुढ़ेर से,
कूद पडूं सरिता जल में।
आँख खोलकर ख़ूब निहारूं,
नदिया के सुंदर तल में।
हौले-हौले हाथ बढ़ाकर,
सीपी शंख उठाने को।
आँख बंद करता हूँ जब भी,
दिखते नभ् मैं कनकैया।
पेंच लड़ाने तत्पर मुझसे,
दिखते प्रिय बल्लू भैया।
बच्चे दौड़ लगाते दिखते,
कटी पतंग उठाने को।