नदी / राजेन्द्र उपाध्याय
रूनझुन-रूनझुन करती चलती है मेरे गाँव की नदी
जैसे कोई गोरी घड़ा लेकर पानी भरने जा रही हो।
नदियों के नाम टेड़े-मेड़े हैं
इसलिए वे टेड़े-मेड़े रास्तों पर टेड़े-मेड़े चलती है।
बल खाते चलती है
रूनझुन-रूनझुन करती बहती है।
कुछ नदियाँ स्वर्ग से आती हैं
और नर्क में चली जाती है।
कुछ नदियाँ हमें आशीर्वाद देती है
और कुछ ख़ुद ही शामिल होती है
उन्हें उनका समुद्र नसीब नहीं होता।
हर नदी का एक इतिहास होता है
और एक भूगोल
हर नदी की एक संस्कृति होती है
और एक भाषा।
कोई नदी गोरी होती है
कोई काली मटमैली कोई धूसर।
नदियों के पानी से जब शूरवीर अपने घाव धोते हैं
तो उनका पानी खून से लाल हो जाता है।
कोई मज़दूर जब उसमें डुबकी लगाता है
तो नदी उसकी स्त्री बनकर
सारी थ्कान हर लेती है।
नदी अपने साथ बहाकर ले जाती है
तो किनारे भी पहुँचा देती है कई बार
कोई कोई नदी बहा ले जाती है अपने किनारे भी।
हर नदी क्या पहाड़ से निकलती है
क्या कोई नदी नहीं निकलती मैदानों से
पठारों से, रेगिस्तानों से।
सब नदियाँ ठीक दिशा में बहती है
कोई कोई बहने लगती है विपरीत दिशा में
और कभी दिशा बदल लेती है
तबाही मचा देती है।
हर नदी बारह साल बाद बदल लेती है दिशा।