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धूप को आने दो / राजेन्द्र उपाध्याय

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आने दो उसे
सींखचों के पार
शेर के पिंजरे में भी वह बेखौफ घुस जाती है
कुएँ के पानी पर तैरती है
मीठे सरोवर को चूमती है तो खारे सागर को भी
नदी की कलकल के साथ बहती है
तो राजधानी एक्सप्रेस की छत पर चढ़कर भागती है।
बस के ऊपर रखे सामान की हिफाज़त करती है
तो बैलगाड़ी में रखी हुई ककड़ियों पर हाथ फेरती है।
हवाईजहाज का टिकट किसने कटा दिया उसको
देखो तो वह उसके पंखों पर मुझसे पहले से सवार
दुलती मारते घोड़े की चिबुक पर बैठी
देखो वह इतराती
बार बार छूती है वह तुम्हारी बिन्दी
मैं जिसे बस देख ही पाता हूँ!
छाया से होगा तुमको
मुझको तो धूप से प्यार...
धूप से इस वक़्त इतना उचला कोई नहीं...
धूप से इस वक़्त इतना प्यारा कोई नहीं...