भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मिज़ाज-ए-मुस्तक़िल देना शुऊर-ए-मोअतबर देना / गौहर उस्मानी

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:21, 25 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गौहर उस्मानी |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी शुऊ'र कभी दिल कभी सुख़न महके
कहो वो शे'र कि दुनिया-ए-फ़िक्र-ओ-फ़न महके

अता हमें भी जो हो जाए 'मीर' का अंदाज़
तो लफ़्ज़ लफ़्ज़ से मा'नी का पैरहन महके

रहूँ ख़मोश तो फूलों को नींद आ जाए
पढ़ूँ जो शे'र तो लफ़्ज़ों का बाँकपन महके

लरज़ते होंटों की वो गुफ़्तुगू तो याद नहीं
बस इतना याद है बरसों लब-ओ-दहन महके

दबी हुई है जो सदियों से ग़म की चिंगारी
भड़क उठे तो ख़यालों की अंजुमन महके

कभी तो ऐसा ज़माना भी आए ऐ 'गौहर'
मोहब्बतों की फ़ज़ा से मिरा वतन महके