खिलारी नल को, कलजुग खेल सिखाता / प.रघुनाथ
खिलारी नल को, कलजुग खेल सिखाता,
दया धम्र हुये नष्ट भ्रष्ट, और जोश जुल्म का आता ।।टेक।।
एक रोज राजा के मन में, जुवे की उमंग उठी,
राज का अभिमान आया, माया की तरंग उठी,
जुए का खिलारी राजा, गर्मी एक संग उठी,
इन्द्र ने भी हार मानी, मन चीते करलूं काज,
जीत लूं पुष्कर का हिस्सा, तार लूंगा सिर का ताज,
कोई नहीं सांझी रहे, एकला करूंगा राज,
आधे का हकदार मेरा, म्हारा एक पिता दो माता।।1।।
दिल दरिया में झाल उठी, ख्याल हुआ और और,
राजा नल के सिर पै हो गया, कलु की ग्रह का जोर,
खल कैसी खसलत हुई, नशे कैसा हुआ त्यौर,
शिकार भी खेला नहीं, करी ना बनी में देर,
छोड़ दिया बन का रस्ता, उल्टा घोड़ा दिया फेर,
महल जनाने आके, दमयन्ती तै बोला टेर,
जल्दी आ प्रिय पानी लेके, करके प्यार बुलाता।।2।।
पति की आवाज सुनके, सति ने ना देर लगाई,
ठन्डे जल का लोटा लेक, आरते में धरी मिठाई,
चरणों में प्रणाम करके, मीठी-मीठी बतलाई,
सब तरियों की मौज, प्रेम के आनन्द छाये,
ईश्वर की माया के भेद, वेद तक भी नहीं पाये,
मनुष्य की ना इच्छा होती, होते हैं ईश के चाये,
बिन बोले बतलाये, आदमी का भेद कदे ना पाता।।3।।
हाथ जोडक़ै बूझन लागी, दिल की बात बताओ पिया,
चन्दन चौकी बिछी हुई, गंगा जल से न्हावो पिया,
सोने के बर्तन में भोजन, खीर खांड खाओ पिया,
मानसिंह सतगुरु मेरा, जो ज्ञान का भण्डारा,
रघुनाथ के भजनों में, काफिये का रंग न्यारा,
मतलब का संसार बसे, कोई ना किसी का प्यारा,
मात-पिता सुत बुआ भानजी, सबसे झूठा नाता।।4।।