भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जा रहे हो, मगर, लौटना / जहीर कुरैशी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 07:24, 25 सितम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार= जहीर कुरैशी }} <poem> जा रहे हो मगर लौटना एक दिन अप...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 

जा रहे हो मगर लौटना
एक दिन अपने घर लौटना

जीतना भी जरूरी नहीं
लौटना हार कर लौटना

मुझको जादू सरीखा लगा—
मौन शब्दों में स्वर लौटना

घर से भागी नदी का हुआ
स्वप्न में रात भर लौटना

उस शिविर में पहुँचने के बाद
है असंभव इधर लौटना

ये तो चिंताजनक है बहुत_
मन की बस्ती में डर लौटना

पिंजरा खुलते ही पंछी उड़े
मुक्त होना है ‘पर’ लौटना