भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाज़ और कबूतर / फ़ोन गुइटो (गेटे) / दिगम्बर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:39, 28 अगस्त 2020 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बाज़ के एक नए-नवेले बच्चे ने
पंख फैलाए शिकार की तलाश में;
फिर गुज़रा एक बहेलिये की बरछी से और
गँवा दी अपने दायें पंख की मजबूत ताक़त ।

सर के बल जा गिरा मेंहदी के कुञ्ज में;
तीन दिन वहीं अपना दुख सहा,
और दर्द से छटपटाता रहा
तीन लम्बी, लम्बी रातें, तीन उबाऊ दिन ।

काफ़ी देर तक उसने महसूस किया
हर रोग हरनेवाली प्रकृति की,
गुल-मेहन्दी की शक्ति.
चौथे दिन रेंगा झाड़ी की छाया में
और तोला अपने परों को, लेकिन अफसोस !
उड़ान की ताक़त नहीं रही !

बमुश्किल उठा सका ख़ुद को
ज़मीन से ऊपर
ज़िन्दगी बची रहे, इसलिए भोजन की तलाश में;
फिर आराम, गहरा शोक,

सोते के पास एक छोटी चट्टान पर;
निहारा उसने बांज के पेड़ की चोटी को,
दूर आसमान तक,
और उसकी अभिमानी आँखों में आँसू चमक आए ।

तभी वहाँ आई कबूतरों की एक प्यारी जोड़ी,
कुञ्ज के इर्दगिर्द मस्ती में सरसराती ।
गुटर-गूँ करते, छेड़खानी करते वे लड़खड़ाते रहे
सुनहरी रेत और कुञ्ज के चारों ओर;
और, इधर-उधर चक्कर काटते,
उनकी गुलाबी आँखों ने देख लिया
गहरे शोक में डूबे पंछी को ।

कबूतर, दोस्ताना कुतूहल से,
सरकता हुआ बढ़ा अगली झाड़ी की ओर,
और देखा घायल शाह की ओर ।

“उफ़, इतने उदास क्यों ?” उसने लाड़ किया;
“हिम्मत रखो, मेरे दोस्त !
यहाँ तुम्हारी ख़ुशी के लायक
सारे साधन मौजूद नहीं हैं क्या ?

तुम्हारी चौड़ी छाती का सामना नहीं हुआ क्या
डूबते हुए सूरज की आख़िरी किरण से
इस कुञ्ज के दलदली किनारों पर ?
क्या नहीं मण्डराए गीले फूलों के बीच,
और जंगली झाड़ियों की अपार दौलत से
नहीं पाया मनमर्जी का भरपूर और लजीज़ खाना,
और रुपहले झरनों से नहीं बुझाई अपनी प्यास ?

अरे दोस्त ! सन्तुष्टि की भावना
वह सब देती है जो हम जानते हैं ख़ुशी के बारे में;
और सन्तुष्टि की यह मधुर भावना
हर जगह पा लेती है अपना भोजन ।”

“अरे, समझदार !”
बाज़ ने कहा, जो ख़ुद ही
ख़स्ता हाल था;
“अरे बुद्धिमान, तू तो कबूतर की तरह बात करता है !”

अँग्रेज़ी से अनुवाद : दिगम्बर