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दर्पण ने जब मुझको पढ़कर / सर्वेश अस्थाना

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दर्पण ने जब मुझको पढ़कर एक उपन्यास रच डाला।
आंखों में एक गहरा सागर होठों पर मुस्कान समेटे,
बीते किंतने ही जन्मों के पल पल का मधुपान लपेटे।
भौगोलिक इतिहासी तन का वर्णन बहुत खास रच डाला।।
दर्पण ने जब मुझको....

जीवन की त्रिज्याएँ भागीं आंख मूंद कर एक परिधि पर,
जैसे लहरों का नर्तन हो आकुल व्याकुल शांत उदधि पर।
सारी त्रिज्याओं ने मिलकर टूटा एक व्यास रच डाला।।
दर्पण ने जब मुझको....

व्यास और त्रिज्या से ऊबी परिधि मांगती एक सहारा,
कहती बंधन मुक्त करो अब होना है विस्तार हमारा।
किन्तु केंद्र ने साथ समय का लेकर एक दास रच डाला।
दर्पण ने जब....