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इस ख़ुश्की के आलम में / सर्वेश अस्थाना

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इस ख़ुश्की के आलम में मैं मधुमय गीत नही लिख सकता।
देह जल रही है सूरज सी
धूप अंगार उड़ेल रही है
लू बन करके तपिश हठीली
मलय पवन को ठेल रही है।
दूर भागते तन के मन को
मैं मनमीत नही लिख सकता।
भट्टी के भीतर तंदूरी
अरमानों की भस्म पड़ी है
और पसीने में ही लथपथ
जहाँ प्रेम की रस्म सड़ी है।
आकर्षण के धुर विलोम में कर्षित गीत नही लिख सकता।।