भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गाँव ही तो हूँ सुनो / सर्वेश अस्थाना

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:27, 29 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सर्वेश अस्थाना |अनुवादक= |संग्रह= }...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
गाँव ही तो हूँ सुनो मैं गाँव ही तो हूँ।
भोर के आने से पहले उठ खड़ा हूँ मैं
भूख हो या प्यास हो सब से लड़ा हूँ मैं
खेत की गोदों में पलता बैल हल हूँ मैं
आज की आंखों में हंसता एक कल हूँ मैं।
मुश्किलों में मुस्कुराता ठाँव ही तो हूँ।
गाँव ही तो हूँ सुनो मैँ गाँव ही तो हूँ।।
चीथड़ों में भी खुशी से नाचती बिटिया
राज सिंहासन सरीखी बुआ की खटिया।
व्यंजनों को मात करते हैं नमक रोटी
आंगनों को लीपती हैं मिल बड़ी छोटी।
धूप में खिलती हुई एक छांव ही तो हूँ
गाँव ही तो हूँ सुनो मैं गाँव ही तो हूँ।।
जल रहे चूल्हे पड़ोसी से मिली कुछ आग से
दूर के देवर रिझाते भौजियों को फाग से
एक भाभी के लिए टोले की सारी ननदियाँ
पर समझ पातीं नही क्यों आईं इतनी इमलियाँ
हो रहा भारी बहू का पाँव ही तो हूँ
गाँव ही तो हूँ सुनो मैं गाँव ही तो हूँ।।
आंधियों में उड़ रहा वो एक छप्पर हूँ,
महल के सपने सजाता टीन टप्पर हूँ।

बाढ़ में हर साल बहना भी नियति है,
आपदा हर हाल सहना भी नियति है।
एक अंधे काग की बस काँव ही तो हूँ
गाँव ही तो हूँ सुनो बस गाँव ही तो हूँ।।