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दूर अभी मंज़िल है / शशिकान्त गीते

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दूर अभी मंज़िल है
मन माँगे ठौर।

जला रही धूप, छाँव
छल रही मंसूबे
रेतीली नदी, स्वप्न
शर्म है कि डूबे
अभी नहीं हारे है
शेष कई दौर।

नदिया के होठों पर
सुलगती है प्यास
दोपहरी माँग रही
चुटकी भर उजास
जंगल में बिखरा है
मायावी शोर।

आँवे से दिन जलते
पत्थरों के देश
डरी-डरी यात्राएँ
लपटों के उपनिवेष
तप कर ही निखरेंगे
स्वर्ण-प्राण और।