भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
समय की शान / शशिकान्त गीते
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:23, 31 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शशिकान्त गीते |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
दुक्ख- सुख अपने कहें किससे
नहीं सुनता कोई
लोग कहते हैं कभी
दीवार के भी कान होते थे।
हम खुले पन्नों सरीखे
देख लेते हैं सभी पर
बाँचकर गुनता नहीं कोई
विजय-पुष्पों से पड़े हैं
राजपथ के श्लथ किनारों
धूल से चुनता नहीं कोई
पारदर्शी सदानीरा में
सिराये दीप- से हम
लोग कहते हैं कभी
धर्मों धरा की आन होते थे।
इतिहास के दोहक, नियामक
दोहते हमको, हमारे विगत को
ताज़ा कहानी से
हम रहे संघर्षरत हैं
सर्वदा बहती नदी के
सर्वथा निर्दोष पानी से
ठग रहे उजला समय
ज्योतित अँधेरे अन्यथा
लोग कहते हैं कभी
हम ही समय की शान होते थे।