भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
धार समय की / शशिकान्त गीते
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:48, 31 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शशिकान्त गीते |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
ऋषिकेश में गंगा जैसी
बहुत तेज़ है धार समय की
शंख-सीपियाँ, मूँगे-मोती
बह जाते हैं
कुहरे डूबे, कटे किनारे
रह जाते हैं
पत्थर टुकडे़-टुकडे़ होते
बहुत बुरी है मार समय की
गतियों के सारे भ्रम
टूट, डूब जाते हैं
दुस्साहस के हाथों
बुझे अहम आते हैं
भग्न किलों से भी जाना है
जीत हुई हर बार समय की