भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आसमान गुमसुम रहता है / शशिकान्त गीते

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:52, 31 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शशिकान्त गीते |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आसमान गुमसुम
रहता है ।

सूरज के बिगड़े घोड़ों की
भारी-भारी टापें
जिनकी धमकों से औरों के
रोएँ-रोएँ काँपें
ऐसी विकट
जुल्म की सत्ता
छाती पर चुप-चुप
सहता है ।

मन्दिर-मस्जिद का बुनियादी
पत्थर-पत्थर गलना
पर्वत-पर्वत से कतरा
नदियों का
राह बदलना
देख विवश टिम-टिम आँखों से
बिन बोले क्या-क्या
कहता है ।