दूसरी दुनिया से पहले / रंजना मिश्र
 
एक
स्त्री-विमर्श करते 
तुम्हारी पुरुष आँखें
छूती रहती हैं 
मेरे वक्ष और नितंब
और मेरी आँखें 
तुम्हारे चौड़े ललाट 
और पैरों के लगातार हिलने में
स्त्री-विमर्श का खोखलापन
भाँप लेती हैं!
मुझे याद आता है
भीड़ भरी बस का वह अधेड़
जो अक्सर 
लड़कियों के बग़ल में बैठने की जगह ढूँढ़ा करता था!
दो 
उनमें से कुछ मौन हैं
कुछ अंजान
उनका मौन और अज्ञान
उन्हें देवी बनाता है
कुछ और भी हैं
पर वे चरित्रहीन हैं
हम यहाँ उनकी बात नहीं करेंगे!
दुनिया में बस
इतनी ही औरतें हैं!
तीन
मेरे शब्दों में बैठी है 
एक बूढ़ी औरत 
जर्जर
पके झुर्रीदार चेहरे वाली
रेखाएँ जिसके चेहरे पर 
उसके पैरों के नीचे की 
पथरीली ज़मीन बनकर जमा हैं 
आँखें जिसकी सवालों से बेख़बर,
ज़िंदगी को ढोते जाने की ज़िंदा तस्वीर 
जिसके हाथों ने मिट्टी ढोई है 
उस क़िले की जर्जर दीवार को बचाने के लिए
जिसमें वह ख़ुद क़ैद है
मेरे शब्दों में छिपी है
एक दूसरी औरत
दूर कहीं, भविष्य के गर्भ में 
नौजवान, 
ज़िंदगी के आदिम गीत में बहती हुई, 
बाँहें पसारे 
जिसके भीतर उगते हैं कई मौसम 
और वसंत जिसके जूड़े में ठहरा है 
कंधे मज़बूत हैं जिसके, 
और बाँहें लचीली 
यथार्थ के धरातल पर खड़ीं  
जो सूरज की आँखों में सीधी झाँकती हैं 
जिसका मालिक कोई नहीं 
और दुनिया की तस्वीर में 
जो पैबंद की तरह नहीं लगतीं
मैं—
इनके बीच खड़ी अपने शब्द तौलती हूँ
और मुस्कुराकर 
नौजवान औरत की हँसी 
बूढ़ी औरत की तरफ़ उछाल देती हूँ
जो धीरे-धीरे उठ खड़ी होती है 
अपनी पोपली हँसी 
और झुर्रीदार हाथ 
मेरी तरफ़ बढाते हुए।
 
	
	

