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यूँ तो इस दहर में, कब कोई करिश्मा न हुआ / रमेश तन्हा

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यूँ तो इस दहर में, कब कोई करिश्मा न हुआ
शाख़ से बिछड़ा तो वापस कभी पत्ता न हुआ।

मैं किसी और से क्या कोई तवक़्क़ो रखता
खुद मिरा अपना ही साया कभी मेरा न हुआ।

दोस्ती मेरी किताबों से मिरे काम आई
रह के बेगाना-वश अपनों में भी तन्हा न हुआ।

धुंध में लिपटा रहा उसकी अना का सूरज
ख़ूब रौशन था, मगर दूर धुदल्का न हुआ।

रूह में टूट गई उसकी कोई शय कि जो थी
उसका फिर घर को पलटना कभी असला न हुआ।

शहर में जा के उजालों के भी क्या बात बनी
अपने अंदर का ही जब दूर अंधेरा न हुआ।

उसके औसाफ़-ए-हमीदा का वो शुहरा फैला
वो कि फिर बज़्म-ए-गनीमा में भी रुसवा न हुआ।

इतना गुंजान धुदल्का था तुम्हारे ग़म का
शमअ जब हम ने जलाई तो उजाला न हुआ।

दिल तो कहता रहा आवाज़ लगाओ तो सही
मुझ से ऐसा भी मगर ब-हर-ए-तमन्ना न हुआ।

फूल क्या फूल हुआ जिसमें कि आतिश न हुई
संग क्या संग हुआ जिसमें शरारा न हुआ।

फिक्रो-ओ-अहसास के सद-हैफ़ कि सांचे न हुए
दिल का चाहा न हुआ, ज़ेहन का सोचा न हुआ।

ख़ाक औरों के सुख़न से वो मुतास्सर होता
अपनी आवाज़ का भी जो कभी शैदा न हुआ।

अब्र छा जाने से मर तो नहीं जाता सूरज
शर-पसन्दों से निगूं अज़्म-ए-मलाला न हुआ।

लग्न सच्ची हो तो मिल जाता है हर चीज़ का हल
कौन सा रोग है जिसका कि मुदावा न हुआ।

जब भी देखा उसे, पाया है सरे-बज़्म-ए-ख़याल
ठीक ही कहते हो, तन्हा कभी तन्हा न हुआ।