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यूँ तो बस कुछ ठीक ही लगता है लेकिन इक कमी है / रमेश तन्हा

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यूँ तो बस कुछ ठीक ही लगता है लेकिन इक कमी है
शहर में अम्नो-अमां तो है, नहूसत छा रही है।

फिर रहा है शहर का हर शख्स खुद ही से डरा सा
हर तरफ साये ही साये हैं मरी सी रौशनी है।

चाहती है आडी तिरछी नज़रों से बचना भी लेकिन
सादगी खुद नित नये चेहरे बदलती जा रही है।

दश्ते-दिल के रस्तों पर सर पटकता फिर रहा हूँ
दूर तक जादा-ब-जादा तीरगी ही तीरगी है।

ज़िन्दगी की आड़ में है मौत का व्यापार हर सू
रूह-ए-इंसां में न जाने कौन सी शय मर गई है।

क्यों न अपने आप ही अब मौत को लब्बैक कह दें
ज़िन्दगी की डोर हाथों से सरकती जा रही है।

जो भी थे आबाद कल तक घर वो अब सूने पड़े हैं
उफ़ ये देखो तो सही पागल हवा क्या कर गई है।

लफ्ज़ काहिल हैं, तआकुब में पिछड़ते जा रहे हैं
सोन चिड़िया सोच की उड़ती है उड़ती जा रही है।

हर बशर की आंख सहरा-ए-लक-ओ-दक का है मंज़र
जिस में आंसू तो कहां, बस तिश्नगी ही तिश्नगी है।

शहर सारा सो रहा है मैं ही तन्हा जागता हूँ
नींद मेरी आंख की दहलीज़ छू कर मुड़ गई है।