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ये सोचिए कि क्यों हवा पे ज़ोर चल नहीं रहा / नुसरत मेहदी

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ये सोचिए कि क्यों हवा पे ज़ोर चल नहीं रहा
किसी भी रुख़ से आप का चराग़ जल नहीं रहा

ग़लत है ये कि वक़्त की जबीं पे बल नहीं रहा
मगर ये पहली बार है कि बल निकल नहीं रहा

मैं आज़माइशों में उस मक़ाम तक तो आ गई
कि आग में खड़ी हूँ और जिस्म जल नहीं रहा

सफ़र में एक हुजूम था मगर ये राज़ अब खुला
कि कोई भी यहाँ किसी के साथ चल नहीं रहा

हरारतें तो आ गईं तमाज़तों तलक मगर
है दरमियाँ जो बर्फ़ कि पहाड़ गल नहीं रहा