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करुणा / भगवत रावत
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सूरज के ताप में कहीं कोई कमी नहीं
न चन्द्रमा की ठंडक में
लेकिन हवा और पानी में ज़रूर कुछ ऐसा हुआ है
कि दुनिया में
करुणा की कमी पड़ गई है।
इतनी कम पड़ गई है करुणा कि बर्फ़ पिघल नहीं रही
नदियाँ बह नहीं रहीं, झरने झर नहीं रहे
चिड़ियाँ गा नहीं रहीं, गायें रँभा नहीं रहीं।
कहीं पानी का कोई ऐसा पारदर्शी टुकड़ा नहीं
कि आदमी उसमें अपना चेहरा देख सके
और उसमें तैरते बादल के टुकड़े से उसे धो-पोंछ सके।
दरअसल पानी से होकर देखो
तभी दुनिया पानीदार रहती है
उसमें पानी के गुण समा जाते हैं
वरना कोरी आँखों से कौन कितना देख पाता है।
पता नहीं
आने वाले लोगों को दुनिया कैसी चाहिए
कैसी हवा कैसा पानी चाहिए
पर इतना तो तय है
कि इस समय दुनिया को
ढेर सारी करुणा चाहिए।