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निर्वेद / भाग २ / कामायनी / जयशंकर प्रसाद

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उधर प्रभात हुआ प्राची में
मनु के मुद्रित-नयन खुले।
श्रद्धा का अवलंब मिला
फिर कृतज्ञता से हृदय भरे,

मनु उठ बैठे गदगद होकर
बोले कुछ अनुराग भरे।
"श्रद्धा तू आ गयी भला तो-
पर क्या था मैं यहीं पडा'

वही भवन, वे स्तंभ, वेदिका
बिखरी चारों ओर घृणा।
आँखें बंद कर लिया क्षोभ से
"दूर-दूर ले चल मुझको,

इस भयावने अधंकार में
खो दूँ कहीं न फिर तुझको।
हाथ पकड ले, चल सकता हूँ-
हाँ कि यही अवलंब मिले,

वह तू कौन? परे हट, श्रद्धे आ कि
हृदय का कुसुम खिले।"
श्रद्धा नीरव सिर सहलाती
आँखों में विश्वास भरे,

मानो कहती "तुम मेरे हो
अब क्यों कोई वृथा डरे?"
जल पीकर कुछ स्वस्थ हुए से
लगे बहुत धीरे कहने,

"ले चल इस छाया के बाहर
मुझको दे न यहाँ रहने।
मुक्त नील नभ के नीचे
या कहीं गुहा में रह लेंगे,

अरे झेलता ही आया हूँ-
जो आवेगा सह लेंगे"
"ठहरो कुछ तो बल आने दो
लिवा चलूँगी तुरंत तुम्हें,

इतने क्षण तक" श्रद्धा बोली-
"रहने देंगी क्या न हमें?"
इडा संकुचित उधर खडी थी
यह अधिकार न छीन सकी,

श्रद्धा अविचल, मनु अब बोले
उनकी वाणी नहीं रुकी।
"जब जीवन में साध भरी थी
उच्छृंखल अनुरोध भरा,

अभिलाषायें भरी हृदय में
अपनेपन का बोध भरा।
मैं था, सुंदर कुसुमों की वह
सघन सुनहली छाया थी,

मलयानिल की लहर उठ रही
उल्लासों की माया थी।
उषा अरुण प्याला भर लाती
सुरभित छाया के नीचे

मेरा यौवन पीता सुख से
अलसाई आँखे मींचे।
ले मकरंद नया चू पडती
शरद-प्रात की शेफाली,

बिखराती सुख ही, संध्या की
सुंदर अलकें घुँघराली।
सहसा अधंकार की आँधी
उठी क्षितिज से वेग भरी,

हलचल से विक्षुब्द्ध विश्व-थी
उद्वेलित मानस लहरी।
व्यथित हृदय उस नीले नभ में
छाया पथ-सा खुला तभी,

अपनी मंगलमयी मधुर-स्मिति
कर दी तुमने देवि जभी।
दिव्य तुम्हारी अमर अमिट
छवि लगी खेलने रंग-रली,

नवल हेम-लेखा सी मेरे हृदय-
निकष पर खिंची भली।
अरुणाचल मन मंदिर की वह
मुग्ध-माधुरी नव प्रतिमा,

गी सिखाने स्नेह-मयी सी
सुंदरता की मृदु महिमा।
उस दिन तो हम जान सके थे
सुंदर किसको हैं कहते

तब पहचान सके, किसके हित
प्राणी यह दुख-सुख सहते।
जीवन कहता यौवन से
"कुछ देखा तूने मतवाले"

यौवन कहता साँस लिये
चल कुछ अपना संबल पाले"
हृदय बन रहा था सीपी सा
तुम स्वाती की बूँद बनी,

मानस-शतदल झूम उठा
जब तुम उसमें मकरंद बनीं।
तुमने इस सूखे पतझड में
भर दी हरियाली कितनी,

मैंने समझा मादकता है
तृप्ति बन गयी वह इतनी
विश्व, कि जिसमें दुख की
आँधी पीडा की लहरी उठती,

जिसमें जीवन मरण बना था
बुदबुद की माया नचती।
वही शांत उज्जवल मंगल सा
दिखता था विश्वास भरा,

वर्षा के कदंब कानन सा
सृष्टि-विभव हो उठा हरा।
भगवती वह पावन मधु-धारा
देख अमृत भी ललचाये,

वही, रम्य सौंदर्य्य-शैल से
जिसमें जीवन धुल जाये
संध्या अब ले जाती मुझसे
ताराओं की अकथ कथा,

नींद सहज ही ले लेती थी
सारे श्रमकी विकल व्यथा।
सकल कुतूहल और कल्पना
उन चरणों से उलझ पडी,

कुसुम प्रसन्न हुए हँसते से
जीवन की वह धन्य घडी।
स्मिति मधुराका थी, शवासों से
पारिजात कानन खिलता,

गति मरंद-मथंर मलयज-सी
स्वर में वेणु कहाँ मिलता
श्वास-पवन पर चढ कर मेरे
दूरागत वंशी-रत्न-सी,

गूँज उठीं तुम, विश्व कुहर में
दिव्य-रागिनी-अभिनव-सी
जीवन-जलनिधि के तल से
जो मुक्ता थे वे निकल पडे,

जग-मंगल-संगीत तुम्हारा
गाते मेरे रोम खडे।
आशा की आलोक-किरन से
कुछ मानस से ले मेरे,

लघु जलधर का सृजन हुआ था
जिसको शशिलेखा घेरे-
उस पर बिजली की माला-सी
झूम पडी तुम प्रभा भरी,

और जलद वह रिमझिम
बरसा मन-वनस्थली हुई हरी
तुमने हँस-हँस मुझे सिखाया
विश्व खेल है खेल चलो,

तुमने मिलकर मुझे बताया
सबसे करते मेल चलो।
यह भी अपनी बिजली के से
विभ्रम से संकेत किया,

अपना मन है जिसको चाहा
तब इसको दे दान दिया।
तुम अज्रस वर्षा सुहाग की
और स्नेह की मधु-रजनी,

विर अतृप्ति जीवन यदि था
तो तुम उसमें संतोष बनी।
कितना है उपकार तुम्हारा
आशिररात मेरा प्रणय हुआ

आकितना आभारी हूँ, इतना
संवेदनमय हृदय हुआ।
किंतु अधम मैं समझ न पाया
उस मंगल की माया को,

और आज भी पकड रहा हूँ
हर्ष शोक की छाया को,
मेरा सब कुछ क्रोध मोह के
उपादान से गठित हुआ,

ऐसा ही अनुभव होता है
किरनों ने अब तक न छुआ।
शापित-सा मैं जीवन का यह
ले कंकाल भटकता हूँ,

उसी खोखलेपन में जैसे
कुछ खोजता अटकता हूँ।
अंध-तमस है, किंतु प्रकृति का
आकर्षण है खींच रहा,

सब पर, हाँ अपने पर भी
मैं झुँझलाता हूँ खीझ रहा।
नहीं पा सका हूँ मैं जैसे
जो तुम देना चाह रही,

क्षुद्र पात्र तुम उसमें कितनी
मधु-धारा हो ढाल रही।
सब बाहर होता जाता है
स्वगत उसे मैं कर न सका,

बुद्धि-तर्क के छिद्र हुए थे
हृदय हमारा भर न सका।
यह कुमार-मेरे जीवन का
उच्च अंश, कल्याण-कला

कितना बडा प्रलोभन मेरा
हृदय स्नेह बन जहाँ ढला।
सुखी रहें, सब सुखी रहें बस
छोडो मुझ अपराधी को"

श्रद्धा देख रही चुप मनु के
भीतर उठती आँधी को।
दिन बीता रजनी भी आयी
तंद्रा निद्रा संग लिये,

इडा कुमार समीप पडी थी
मन की दबी उमंग लिये।
श्रद्धा भी कुछ खिन्न थकी सी
हाथों को उपधान किये,

पडी सोचती मन ही मन कुछ,
मनु चुप सब अभिशाप पिये-
सोच रहे थे, "जीवन सुख है?
ना, यह विकट पहेली है,

भाग अरे मनु इंद्रजाल से
कितनी व्यथा न झेली है?
यह प्रभात की स्वर्ण किरन सी
झिलमिल चंचल सी छाया,

श्रद्धा को दिखलाऊँ कैसे
यह मुख या कलुषित काया।
और शत्रु सब, ये कृतघ्न फिर
इनका क्या विश्वास करूँ,

प्रतिहिंसा प्रतिशोध दबा कर
मन ही मन चुपचाप मरूँ।
श्रद्धा के रहते यह संभव
नहीं कि कुछ कर पाऊँगा

तो फिर शांति मिलेगी मुझको
जहाँ खोजता जाऊँगा।"
जगे सभी जब नव प्रभात में
देखें तो मनु वहाँ नहीं,

'पिता कहाँ' कह खोज रहा था
यह कुमार अब शांत नहीं।
इडा आज अपने को सबसे
अपराधी है समझ रही,

कामायनी मौन बैठी सी
अपने में ही उलझ रही।