भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हमसे हर मौसम सीधा टकराता है / प्रफुल्ल कुमार परवेज़
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 10:06, 28 सितम्बर 2008 का अवतरण
हमसे हर मौसम सीधा टकराता है
संसद केवल फटा हुआ इक छाता है
भूख अगर गूँगेपन तक ले जाए तो
आज़ादी का क्या मतलब रह जाता है
लेकिन अब यह प्रश्न अनुत्तरित नहीं रहा
प्रजातंत्र से जनता का क्या नाता है
बीवी है बीमार , सभी बच्चे भूखे
बाप मगर घर जाने से कतराता है
परम्पराएँ अंदर तक हिल जाती हैं
सन्नाटे में जब कोई चिल्लाता है
क्यूँ न वह प्रतिरोध करे सच्चाई का
अपने खोटे सिक्के जो भुनवाता है.