जंगल का ज़हर / सुरेश विमल
इस पार मैं हूँ
बैसाखियाँ थामे
और उस पार आमंत्रण देता हुआ
एक निर्मल, दिव्य आलोक
बीच में
एक अंधा, गूंगा, बहरा
और ढीठ जंगल...
मैंने सुना है
कि यह जंगल
बहुत दुर्गम है
कि यह जंगल
बहुत मायावी है
कि इस जंगल में
किसी के विरुद्ध रचा गया
कोई भी षड्यंत्र
सफल हो सकता है...
इसलिए
मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ
उस एक पतझड़ की
जब तमाम वृक्ष नंगे हो जाएंगे
और सांपों के चेहरे
मैं पहचान सकूँगा
पगडंडियों के नीचे बिछी
कांटों की सुरंग भी
तब अपनी भूमिका में
सफल नहीं हो पायेगी
क्योंकि मैं
अपना एक नया ही मार्ग
बनाऊंगा...
और उस अनचीन्हे रास्ते से
गुज़रते हुए
मैं
अपने भीतर का तमाम विष
इस जंगल की शिराओं में
छिड़क जाऊंगा...
मुझे उम्मीद है कि
मेरे जीवन की तमाम
कटुतम अनुभूतियों से उपजे हुए
इस ज़हर से
जंगल का ज़हर
परास्त हो जायेगा...
फिर नई संभावनाएँ
इस जंगल के परिवेश में जन्म लेंगी
उस पार का वह निर्मल, दिव्य आलोक
तब इसे
एक सुखद अपनत्व से ढँक लेगा
और आने वाली पीढ़ियों के विरुद्ध
रचे जाने वाले
किसी भी षड्यंत्र की संभावना
हमेशा हमेशा के लिए
समाप्त हो जायेगी।