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अंधेरे के विरुद्ध / सुरेश विमल
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एक गुफ़ा है तुम्हारे सामने
और गुफ़ा में
रोशनी का एक नगर
ख़ुशबू की एक नदी
और वसन्त में रची हुई
फूलों की एक घाटी...
लगता है तुम्हें
कि बहुत ताकतवर और
रहस्यमय है गुफ़ा का अंधेरा
तुम्हारी हथेली पर कांपती हुई
दीपशिखा के मुक़ाबले...
पराजित और विजेता होने की
काल्पनिक अनुभूतियों के बीच
एक स्थगित यात्रा से तुम
किसी पर्वत-शिखर की मानिद
ओढे जा रहे हैं
पर्त-दर-पर्त
अवसाद और कुंठा कि बर्फ...
इससे पहले कि यह बर्फ
पाषाण बना दे तुम्हें
और दीपशिखा
जलाने लगे हथेली
बहुत ज़रूरी है कोई निर्णय...
अंधेरे का आतंक
आख़िर की चाह को
अंकुश लगा पायेगा?