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ख़ुदकुशी / विनोद दास

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यह पँखों से लटकी हुई पतली गर्दन
ट्रेन पटरियों पर बिखरी क्षत-विक्षत देह
ऊँची इमारत से गिरकर तरबूज-सा फटा सिर
कीटनाशक पीकर नीली हुई लाश
या ब्लेड से कटी हुई हाथ की कोमल कलाइयाँ
पुलिस अपनी प्राथमिकी में चाहे जो कुछ भी लिख ले
मैं इन्हें ख़ुदकुशी मानने को हर्गिज़ तैयार नहीं हूँ ।

आप बिलकुल सही समझ रहे हैं
यह सौ फ़ीसदी हत्या है
हालाँकि यह अपनी तरह से मृतक का प्रतिरोध है
इस बर्बर दुनिया की यातना के खिलाफ़
सफ़ेद कफ़न पहनकर ।

वे कायर थे
या दिमागी तौर से बीमार
यह कहना उनका अपमान होगा
ज़िन्दगी विकल्पहीन है
हर कोई ज़िन्दगी जीना चाहता है भरपूर
वह आदमी हो
मछली हो या तिलचट्टा ।

जीने के लिए आदमी भीख माँगता है
मन्दिर मस्जिद में प्रार्थनाएँ करता है
ढोंगी बाबा फ़कीरों के चरण चूमता है
ग़ुलाम बनकर अपने आतताइयों की जी हज़ूरी करता है
इलाज के लिए घरबार बेचकर
डॉक्टर से ज़िन्दगी के लिए गिड़गिड़ाता है
गुण्डे के कट्टे की डर की छाया में जी लेता है
अपना एक गुर्दा बेच देता है
अपनी जान बचाने के लिए
दूसरे आदमी की हत्या तक कर देता है ।

एक अरब से ज़्यादा की आबादी में
दरअसल उनके लिए न कोई कन्धा था
न ही आगे बढ़ा कोई हाथ
आशा भी छोड़ चुकी थी साथ
वे अपने दुख में इतने अकेले, पराजित और कातर थे
कि ज़िन्दगी की अन्तिम गली में
सिर्फ़ उनके पास बचने के लिए मृत्यु की बस थी ।

वे बच सकते थे
जैसे बच जाती है प्रदूषित हवा में थोड़ी सी ऑक्सीजन
जैसे बच जाता है दवा के बिना सरकारी अस्पताल में मरीज़
जैसे पेट पर लात मारने पर भी बच जाती है
गर्भ में लड़की
जैसे दुख के अन्तरिक्ष में बच जाता है गर्म आँसू ।

फ़र्श की पतली दरारों में चीटियों की तरह
वे इस बेरहम दुनिया में गुज़र-बसर कर लेते
अगर उनके काम माँगते, हाथ दुरदुराये नहीं जाते
गोत्र के चाक़ू से उनके प्रणय की कलाइयाँ चीरी नहीं जातीं
कर्ज़ से लदे किसानों से बैंक यदि उसी भाषा में करता बात
जो उन्हें समझ में आती
बहू लक्ष्मी होती और मोटर साइकिल की फ़रमाइश पूरी न होने पर
उसकी पीठ जलते चिमटे से दागी न जाती

हाँ ! स्थानीय अख़बार के किसी कोने में छपी इस ख़बर पर
कुछ दिन कोहराम होगा
कुछ दिन उनकी छोड़ी हुई दुनिया याद आएगी
याद आएगी कुछ दिन उनकी खुरपी, कंघी, सुरती की डिबिया
याद आएगा उनका चारख़ाने वाला लाल गमछा — घिसे तल्लेवाला जूता
याद आएगा छींटों वाला उसका दुपट्टा
गत्ते के डिब्बे में रखी गुलाबी चूड़ियाँ
सन्दूक में तहाई हुई सुहाग की साड़ी
कॉपी में रखे गुलाब के सूखे फूल
कुछ दिन धुन्धले समूह फोटो में पहचाना जाता रहेगा
जबरन मुस्कराता उनका उदास चेहरा

फिर सब उसी तरह चलने लगेगा
एक किशोरी रच रही होगी
गदोलियों में बेलबूटों वाली मेंहदी
एक युवक भर रहा होगा नौकरी का आवेदन-पत्र
किसान ला रहा होगा मण्डी से नए बीटी बीज
अभिसार की तैयारी के लिए
एक नवविवाहिता काढ़ रही होगी अपने लम्बे उलझे केश

नही होगा तो बस !
किसी के अन्त:करण में
थोड़ी सी ग्लानि न ही कोई अपराधबोध
न ही होगा कोई क्षोभ
न कोई प्रायश्चित
न ही सन्ताप
दुनिया बदलने की बात तो एकदम न होगी

इसी तरह
ख़ुदकुशी के नाम पर
हर दिन हम मारे जाते रहेंगे धीरे-धीरे
और हमें पता तक नहीं चलेगा
क्या सोचा होगा
उसने अपने अन्तिम क्षण में
मैं नहीं जानता
लेकिन मैं सोचता हूँ
कब तक इसी तरह ज़िन्दगी बनी रहेगी प्रतीक्षालय
हमारी स्थगित हत्या के लिए