भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये बस्ती बस्ती घरों के जंगल / मोहन निराश

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:51, 21 सितम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोहन निराश |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGh...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये बस्ती बस्ती घरों के जंगल
अपने रहने को घर में जंगल

इस पत्थर के नभ के नीचे
उठते क्यों बाहों के जंगल
 
आत्म-दाह किया दुखदायी ने
 कैसे शोक सहेगा जंगल

ख़बर बसन्त पूर्व ही फैली
शरद से पहले झड़ेगा जंगल

खोए झुरमुट से पेड़ सभी
कैसे त्रास सहेगा जंगल

मैं उछल हिरन सा चल दूँगा तो
होगा न सन्ताप, झड़ेगा जंगल