भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रसव / सारिका उबाले / सुनीता डागा
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:02, 27 सितम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सारिका उबाले |अनुवादक=सुनीता डाग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आजकल
नहीं मिटते हैं दुख
कविता को प्रसूत करने के बावजूद ।
दर्द के अन्धेरे गर्भ में
आसानी से हाथ लग जाती थी कविता
सृजन के सुख से
फीकी पड़ जाती थी वेदना
अब ऊब गई हूँ
प्रसूति को लेकर ही
तुममें समाहित होने की
पागल आतुरता
सिर्फ़ झुलाती रहती थी
फिर यकायक
नज़र आ गए तुम
मेरी सम्पूर्ण देह में ही ।
तुम्हारी आँखें विलसती हुई
मेरी आँखों में
हाथों में हाथ
बरस गए तुम पूरे के पूरे
मुझमें धुआँधार
अब सोचा है मैंने
गर्भ में ही सहेज लूँ तुम्हें
प्रसव-वेदनाओं को झेलते हुए
ताकि खेलते रहो तुम
मेरे अंग-अंग में
नहीं प्रसूत करना है
कभी भी ।
मूल मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा