भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लैंडस्केप-2 / गुलज़ार

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:01, 30 सितम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गुलज़ार }} कोई मेला लगा है परबत पर सब्ज़ाज़ारों...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई मेला लगा है परबत पर

सब्ज़ाज़ारों पर चढ़ रहे हैं लोग

टोलियाँ कुछ रुकी हुईं ढलानों पर

डाग़ लगते हैं इक पके फल पर

दूर सीवन उधेड़ती-चढ़ती,

एक पगडंडी बढ़ रही है सब्ज़े पर !


चूंटियाँ लग गई हैं इस पहाड़ी को

जैसे अमरूद सड़ रहा है कोई !