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चिलम की आग / कुमार कृष्ण

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दुनिया को हाथ की तरह
गर्म और नर्म महसूस करने वाला शख्स
चला गया आख़िर इस दुनिया से
वह चला गया ऐसी जगह-
जहाँ से लौट कर नहीं आता कोई
छोड़ गया हमारे लिए-
टॉलस्टॉय की साइकिल
कविताओं के बीजों की बोरियाँ

बरसों पहले वह शख़्स लेकर आया था इन्द्रप्रस्थ में
बलिया कि बेलें
चकिया कि मिट्टी
खलियान के दाने
उसे संभाल कर रखा उसने अंतिम सांस तक
संभाल कर रखा-
अकाल में सारस को पानी पिलाने वाला कटोरा
वह ढूंढ़ता रहा ताउम्र एक दरवाजा-
जो खुल जाए बस एक बार खटखटाने पर
हम जितनी बार मिले-
कविता के पेड़ों पर ही मिले
बहुत ही महीन कातने वाला
अब कोई दूसरा नहीं आएगा चकिया से
नहीं लिखेगा-
रोटी का स्वाद बदलने वाली कविताएँ
नहीं कहेगा पूरे विश्वास के साथ-
उठो पूरी सृष्टि पर लग चुका है पहरा
उठो मेरे सोये हुए धागो उठो
कि बुनने का समय हो गया है
उठो कि मैंने बचा कर रखी है-
चिलम में थोड़ी-सी आग।