पेड़ नीम का / प्रकाश मनु
हरा-भरा सा, खूब बड़ा सा
नीम खड़ा जो सामने,
उसे लगाया मेरे नाना
बाबू मनसाराम ने।
रोज-रोज पानी देते थे
बड़े प्यार से नाना जी,
पानी दे, हँसकर कहते थे
अब थोड़ा मुसकाना जी!
तब सचमुच हँसने लगते थे
नन्हे-नन्हे इसके पत्ते,
जिसे देखकर खुश होता था
मेरा छोटा भाई सत्ते।
झेलीं बड़ी मुश्किलें इसने
लू-लपटों की भीषण मार,
विकट थपेड़े आँधी के थे
पर इसने ना मानी हार।
आज मगर वह पेड़ नीम का
देखो कितना बड़ा हुआ,
कल तक नन्हा बिरवा था, पर
आज शान से खड़ा हुआ।
सब दिन पथिक किया करते हैं
इसकी छाया में आराम,
चैन पड़ा तो खुश हो कहते
अजब तेरी माया है राम!
चलते-चलते दोपहरी में
लोग यहीं सब रुक जाते,
थोड़ा-सा सुस्ताते हैं, फिर
धीरे से आगे बढ़ जाते।
मंदिर जाते बूढ़ी दादी
लोटे से पानी ढुरकाती,
बुद-बुद करके कुछ कहती है
ज्यों पिछली यादें गुहराती।
इसके नीचे रग्घू दादा
कर लेते थोड़ा आराम,
नए खिलौने लेकर घर-घर
जाएँगे जब होगी शाम।
खाना खाकर बैठ यहीं पर
बतियातीं रज्जो-रधिया,
अभी काम में लग जाएँगी
जिससे सुंदर हो दुनिया।
लो अब बच्चे खेल रहे हैं
इसके नीचे डंडा-डोली,
धमा-चौकड़ी खूब मचाती
नटखट बच्चों की टोली।
अभी लड़कियाँ भी आएँगी
हँसती इसी नीम के नीचे,
आँख-मिचौनी खेलेंगी वे
चुप-चुप-सी आँखें मींचे।
देख-देखकर खुश होता है
पुलकित होकर हँसता नीम,
और डालियाँ हिला-हिलाकर
जाने क्या कुछ कहता नीम!
गली-मोहल्ले के जितने भी
छोटे-बड़े, मझौले काम,
सबमें यही नीम शामिल है
आदर से सब लेते नाम।
रस्ता चलते कहते हैं सब
नीम खड़ा जो सामने,
आहा, कैसा खूब लगाया
बाबू मनसाराम ने!